आरक्षण : एक बेअसर दवा

     डॉ भीमराव अम्बेडकर जी का पोता प्रकाश अम्बेडकर और नये नवेले विधायक जिग्नेश मेवानी जो बहुत कूद रहे है और अम्बेडकर जी के सम्मान के पैरोकार बने हुए है, अगर उन्हें अम्बेडकर जी का सम्मान ही करना है तो फिर तुरन्त आरक्षण त्याग दें क्योंकि अम्बेडकर जी ने तो आरक्षण की ये व्यवस्था मात्र 10 वर्ष के लिए की थी।
     वैसे भी यदि किसी दवा से कोई बीमारी ठीक होने के बजाये और अधिक बढ़ जाये तो समझदारी इसी में होती है कि दवा को बंद ही कर दिया जाये और फिर कोई बीमारी लाइलाज हो जाये तो उस का इलाज नहीं किया जाता और उसे उसी हाल पर पड़े रहने दिया जाना ही बेहत्तर होता है, यही जमाने का नियम है।
     वर्तमान में आरक्षण अपने मूल मार्ग से भटक चुका है और इस व्यवस्था ने जाति समुदायों को जोड़ने में, दलित वर्ग को ऊपर उठाने में कभी भी कोई ठोस भूमिका नहीं निभाई और ना ही आज निभा रहा है बल्कि समाज को और ज्यादा जातिगत टुकड़ो में बांटने का काम कर रहा है। आरक्षण केवल चंद साधन सम्पन्न लोगों की बपौती बन कर रह गया है और वास्तविक दलित की हालत आज बद से बदत्तर हो गयी है और यही वास्तविक दलित चंद रसूखदार दलितों का मोहरा मात्र रह गया है।
     अब यदि वास्तव में मूल दलितों का पिछडापन दूर कर उन्हें मुख्यधारा में लाना ही है तो आरक्षण की व्यवस्था का पुनर्मूल्यांकन करना होगा और साधन सम्पन्न बन चुके दलितों को बाहर कर अन्य किसी भी जाति समुदाय के आर्थिक रूप से कमजोर व्यक्ति को भी आरक्षण की नई व्यवस्था में शामिल किया जाना चाहिए, साथ ही रोजगार में आरक्षण का लाभ सिर्फ एक बार ही मिले और जिसे मिल गया उसे और उस के बीबी बच्चों को इस का लाभ मिलना स्वतः ही समाप्त माना जाये, ऐसी व्यवस्था की जानी चाहिये।
जयहिन्द !!
वन्देमातरम !!