ये कैसी शिक्षा ??


आखिर क्या है हमारी शिक्षा नीति ?
और...
क्या है शिक्षा की सार्थकता ?
हाल ही में एक सर्वे में ये बात सामने आई कि बहुत से बच्चों में हड्डियों में दर्द की शिकायत पाई गयी, कारण भारी भरकम बस्ते !!
एक मानक के अनुसार बच्चे के बस्ते का वजन बच्चे के वजन से 10 फीसदी से अधिक नहीं होना चाहिए, लेकिन हमारे देश में ये औसतन 25 प्रतिशत तक पहुंच चुका है।
माता पिता पैसा कमाने में इस कदर मशगूल हैं कि वे खुद अपने बच्चों का दर्द समझ नहीं पाते और शिक्षा के तथाकथित ठेकेदार किताबों में मिलने वाले कमीशन के चक्कर में बोझ को बढ़ाते चले जाते हैं और खामियाज़ा बेचारे बाल मन को भुगतना पड़ता है।
खैर...इस के बावजूद इस शिक्षा का क्या फायदा ?
एक छोटी सी लेकिन बहुत बड़ी सच्ची
घटना....
मैं एक दुकानदार हूँ तो निश्चित ही मेरे पास हर तरह का ग्राहक भी आयेगा।
बच्चा बूढ़ा, नर नारी, अमीर गरीब सब तरह के...
एक बच्चा मेरे पास आया तो मैंने पूछ लिया कौन सी क्लास में पढ़ते हो ?
जवाब था...थर्ड स्टेंडर्ड यानि तीसरी क्लास
उस ने मुझे 50 रु का नोट दिया और 35 रु का सामान लिया।
मैंने पूछा कितने रूपये वापिस करूँ ?
बच्चा निरुत्तर...मैंने फिर कहा, बेटा फिफ्टी में से थर्टी फाइव लैस करो, फिर भी कोई जवाब नहीं मिला।
वहीँ दूसरी ओर एक मजदूर का बच्चा...
मैला सा कुछ फ़टे से कपड़े तन पर...
शायद किसी स्कूल की शक्ल भी ना देखी होगी !!
45 रु का सामान लिया और 100 रु का नोट थमा दिया।
मेरा वही सवाल वापिस कितने रूपये दूँ ?
बच्चा शायद संकोच कर गया। मैंने फिर स्थानीय भाषा में दोहराया..
कित्ता पीसा पाछा दयूं ?
बच्चे ने दिमाग पर थोड़ा जोर डाला और जवाब सामने था...
पचास अन पांच यानि पचास और पांच, पचपन रुपये।
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बस यही फर्क है ऊँची इमारतों में शानदार ड्रेस पहने टाई लगाये, पॉलिश से चमचमाते जूते पहन जब बच्चा सुबह सुबह ही आलीशान बस पर चढ़ता है तो माँ बाप गर्व से सीना चौड़ा कर लेते हैं।
लेकिन आधारभूत शिक्षा से कोसों दूर ऐसे शिक्षा के ठेकेदारों का कभी विरोध नहीं कर पाते और शिक्षा की ऐसी चक्की में पिसते बच्चे अवसाद के शिकार होते चले जाते हैं।
आखिर कब माँ बाप अपनी जिम्मेदारी समझेंगे ?
बच्चों को सत्यासि (87) और एटी सेवन का मतलब समझायेंगे ?
समान्यतः जिंदगी में काम आने वाला शिक्षा का गणित समझा पायेंगे ?
आखिर कब ?
#देबू_काका

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