राहुल गाँधी की पदयात्रा : एक प्रश्नचिन्ह ?
राहुल गाँधी की पदयात्रा : एक प्रश्नचिन्ह ?
राहुल गाँधी ने महोबा में 7 km की पदयात्रा की और किसानों का दर्द समझने की कोशिश की.....
बहुत अच्छा लगा लेकिन एक सवाल सा उठा मन में......
कि कभी जमीन पर ना पड़ने वाले पाँव आज कई दूर चलने को क्यों मजबूर हो गए.......
किसान यानि अन्नदाता आज खुद भूखा मरने को मजबूर है, आत्महत्या कर रहा है तो निश्चित ही ये हर हिंदुस्तानी के लिए दुःखदायी है, जब अन्नदाता अनाज नहीं पैदा करेगा तो शायद हमें भी एक ना दिन भूखा मरना पड़ेगा।
हम सब को सोचना होगा कि आखिर अन्नदाता क्यों मजबूर है ?
आज किसान के दर्द पर मरहम लगाने से ज्यादा राजनीती करने निकल पड़े हैं राहुल.......
राजनीति..... जी हाँ राजनीति ही कहना सही होगा !!
महोबा....ये ऐतिहासिक जिला उसी उत्तरप्रदेश का हिस्सा है ना, जो राहुल जी आप के ख़ानदान की विरासत रहा है.......जन्मभूमि भी और कर्मभूमि भी.....
नेहरू जी, इंदिरा जी, राजीव जी, सोनिया जी और आप...सभी यही पर ही तो काबिज़ रहे बरसो से.....
और बरसों देश पर, उत्तरप्रदेश पर आप के परिवार की सरकार रही.....
तो फिर आज ही इतना दर्द क्यों ???
क्या पिछले दो पाँच सालों में ये स्थिति बनी, जो लगे मोदी और मुलायम सरकार को खरी खोटी सुनाने......
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कहीँ सत्ता छिन जाने, राजनैतिक विरासत खत्म होने का गम तो नहीं इस के पीछे.....
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यूपी ही नहीं सारे देश में किसानो के साथ ऐसा ही हो रहा है.......कभी गौर किया, कौन है इस का जिम्मेदार ?
नहीं ना...तो इतिहास पढ़ो, आकड़ों पर नजर डालो !!
आप ही की सरकार की घटिया नीतियों का दुष्परिणाम आज भुगत रहे हैं ये बेचारे किसान......
1966-67 में प्रो.नार्मन बारलग की अगुवाई में जो " हरित क्रांति " लाई गयी, उसी के दुष्परिणाम आज भुगतने पड़ रहे हैं आज.....
बिना नफा नुकसान जाँचे और शोध के हिसाब से बदलाव किये बिना बंजर बना दिया " सोना उगलने वाली धरती " को.....
अनाज के उत्पादन में वृद्धि और आयात को कम करने के लिए छोटे किसानो की अनदेखी होती गयी और कृषि पूंजीपतियों का उद्योग बना दिया गया।
डॉ जॉल के अनुसार उर्वरकों की निर्भरता इतनी बढ़ गयी कि बिना उर्वरक खेती कर पाना असम्भव हो गया।
ऐसा नहीं कि उर्वरकों की अधिकता के दुष्प्रभाव जमीन पर ही पड़े बल्कि उन खेतों में काम करने वाले किसान व् उनके परिवार पर भी पड़े।
अधिक रसायनिक खाद ने धरती के उन सूक्ष्म जीवो को भी खत्म कर दिया जो भूमि की उर्वरा शक्ति स्वभाविक रूप से बढ़ाने में सहायक थे, पोटेशियम की कमी से किसानों को ब्लड प्रेशर ह्रदयघात जैसी बीमारियों ने घेर लिया, विटामिन C और A की कमी ने अंधता और हड्डियों में कमजोरी बढ़ा दी तो पानी में नाइट्रेट व् नाइट्राइट की अधिकता ने साँस की सौगात दे दी।
कभी शारीरिक मजबूती के लिए जाने वाले पंजाब के बठिंडा से बीकानेर ( राजस्थान ) के बीच चलने वाली ट्रेन का नाम ही " कैंसर ट्रेन " पड़ गया क्योंकि पंजाब हरियाणा से बीकानेर कैंसर अस्पताल में आने वाले 90% यात्री इसी पैसेंजर ट्रेन में सफर करते हैं।
ऐसा नही कि पैदावार बढ़ाने के लिए परम्परागत तरीको को नजर अंदाज़ कर पाश्चात्य तरीको का गुलाम बन जाना जरूरी हो गया था, उस वक्त भी किया जा सकता था जो आज सिक्किम कर रहा है....
ज्ञात रहे सिक्किम पूर्ण रूप से जैविक खेती पर निर्भर एक मात्र राज्य है जहाँ रसायन पूर्ण रूप से प्रतिबंधित हैं।
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अब आर्थिक और शारीरिक रूप से कमजोर हो चुका किसान जब मजदूरी कर के पेट नहीं भर सकेगा तो वो आत्महत्या ही करेगा ना !!
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बहुत दुःख होता है जब अपनी कुनीतियों पर परदा डालने के लिए ऐसे नेता पदयात्रा की नौटँकी करते हैं........
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ये आत्महत्याओं का सिलसिला साल दो साल का नही है राहुल जी.......
अगर सरकारी आकड़ों पर ही नजर डाले तो 1995 से 2011 के बीच 7 लाख 50 हजार 860 किसानों ने आत्महत्याएं की। 2004 के बाद से यूपीए सरकार के शासन के दौरान किसानों की हालत बद से बदत्तर होती चली गयी। जहाँ 2008 में 16196 किसानो ने आत्महत्या की तो वहीँ 2009 में ये संख्या 17368 हो गयी तो साथ ही 2001 से 2011 के बीच 77 लाख किसान खेती का काम छोड़ चुके हैं।
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आज मोदी सरकार ने इस किसानो की ओर ध्यान देते हुए प्रधानमन्त्री कृषि बीमा योजना लागु की है वह दम तोड़ते किसानो के लिए संजीवनी साबित हो सकती है, क्योकिं की इसमें कम प्रीमियम में फसल की बुवाई से ले कर कटाई के बाद तक ध्यान देने का प्रयास किया गया है।
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किसान भाइयों से हाथ जोड़ विनती है कि समस्या का अंत जीवन के अंत से सम्भव नहीं है, कृपया ऐसा कदम मत उठाना।
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जयहिंद !!
वन्देमातरम् !!
#देबू_काका
( प्रस्तुत आंकड़े इंटरनेट पर उपलब्ध जानकारी से लिए गए हैं )
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